भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इस ज़ख्मी प्यासे को इस तरह पिला देना / बशीर बद्र
Kavita Kosh से
इस ज़ख़्मी प्यासे को इस तरह पिला देना
पानी से भरा शीशा पत्थर पे गिरा देना
इन पत्तों ने गर्मी भर साये में हमें रक्खा
अब टूट के गिरते हैं बेहतर है जला देना
छोटे क़दो-क़ामत पर मुमकिन है हँसे जंगल
एक पेड़ बहुत लम्बा है उसको गिरा देना
मुमकिन है कि इस तरह वहशत में कमी आये
इन सोये दरख़्तों में तुम आग लगा देना
अब दूसरों की ख़ुशियाँ चुभने लगीं आँखों में
ये बल्ब बहुत रोशन है इस को बुझा देना
बारीक कफ़न पहने तुम छत पे चली आओ
जब भीड़ सी लग जाये ये परदा उठा देना
वो जैसे ही दाख़िल हो सीने से मिरे लग कर
तुम कोट के कालर पर एक फूल लगा देना
इस बदमज़ा चाये में सब ज़ायके पायेंगे
इक सोने के चमचे को हर कप में चला देना
(१९७०)