इस जुलाई में घर / सत्यनारायण सोनी
जुलाई का महीना
इस बार जैसा आया
पहले कभी नहीं आया।
पिछले से पिछले साल
बड़ा बेटा गया था पढऩे
दूर शहर
तब इतना भारी नहीं हुआ था मन।
पिछले बरस छोटा गया
तब भी नहीं।
इस बार बेटी को भेजना पड़ा है शहर
गांव में कहां होते हैं
कॉलेज की पढ़ाई के इंतजाम
सो भेजना ही पड़ा
घर से पचास कोस दूर
रखा है उसे हॉस्टल में
और अब हम
दो के दो ही रहे हैं घर में।
पत्नी के शब्दों में कहूं तो
खाने को आता है घर
नहीं रही कोई रौनक।
निस्तब्धता का आलम है हर ओर
नहीं हँसता कोई कोना घर का
टीवी भी पड़ा है मौन।
पत्नी भावुक हो जाती है बार-बार
बातें करती-करती बेटी की
और उलाहना देती है मुझे
कि तुमने तो ससुराल जाने के कई बरस पहले ही
मुझसे बिछड़वा दिया बिटिया को
और वह
साड़ी के जिस पल्लू को
अक्सर रखती थी अपने सिर पर
अब आंखों पर भी रखने लगी है
यह कहते-कहते मुझसे
पल्लू को कुछ और नीचे सरका लेती है
और अभी-अभी
मुझसे नजरें चुरातीं
चली गई वह रसोई में
सुड़कती नाक
नहीं हुआ है जबकि जुकाम उसे
बरतन उलट-पलट रही है
जबकि नहीं है अब कोई काम शेष वहां
बरसों बाद घूंघट में देख उसे
सोचता हूं-
घूंघट कितने काम की चीज है
आज उसके लिए!
2012