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इस तरफ़ से जीना / मनोज कुमार झा
Kavita Kosh से
यहाँ तो मात्र प्यास-प्यास पानी, भूख-भूख अन्न
और साँस-साँस भविष्य
वह भी तो जैसे-तैसे धरती पर घिस-घिसकर देह
देवताओं, हथेलियों पर दो थोड़ी जगह
खुजलानी हैं लालसाओं की पाँखें
शेष रखो भले पाँव से दबा बुरे दिनों के लिए
घर को क्यों धांग रहे इच्छाओं के अन्धे प्रेत
हमारी सन्दूक में तो मात्र सुई की नोक भर जीवन
सुना है आसमान ने खोल दिए हैं दरवाज़े
पूरा ब्रह्मांड जब हमारे लिए है
चाहें तो सुलगा लें किसी तारे से अपनी बीडी
इतनी दूर पहुँच पाने का सत्तू नहीं इधर
हमें तो बस थोड़ी और हवा चाहिए कि हिले यह क्षण
थोड़ी और छाँह कि बांध सकें इस क्षण के छोर।