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इस तरफ से गुज़रे थे काफ़िले बहारों के / साहिर लुधियानवी
Kavita Kosh से
इस तरफ से गुज़रे थे काफ़िले बहारों के
आज तक सुलगते हैं ज़ख्म रहगुज़ारों के
खल्वतों के शैदाई<ref>एकांतों के रसिया</ref> खल्वतों में खुलते हैं
हम से पूछ कर देखो राज़ पर्दादारों के
पहले हंस के मिलते हैं फिर नज़र चुराते हैं
आश्ना-सिफ़त<ref>परिचितजनों जैसे स्वाभाव वाले</ref> हैं लोग अजनबी दियारों के<ref>नगरों के</ref>
तुमने सिर्फ चाहा है हमने छू के देखे हैं
पैरहन<ref>लिबास</ref> घटाओं के, जिस्म बर्क-पारों<ref>बिजली के टुकड़ों</ref> के
शगले-मयपरस्ती<ref>मदिरापान द्वारा मनबहलाव</ref> गो जश्ने-नामुरादी है
यूँ भी कट गए कुछ दिन तेरे सोगवारों<ref>सोगियों</ref> के
शब्दार्थ
<references/>