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इस तरह कब किसी से हारा हूं / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'
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इस तरह कब किसी से हारा हूँ
जिस तरह ज़िन्दगी से हारा हूँ
मुझसे कल कह रहा था मयख़ाना
मैं तेरी तिश्नगी से हारा हूँ
हारने का मलाल क्यों होगा
मैं तो अपनी ख़ुशी से हारा हूँ
वो अमीरी से तंग है यारो
और मैं मुफ़लिसी से हारा हूँ
पल में मस्जिद, तो पल में मयख़ाना
दिल की आवारगी से हारा हूँ
जब भी हारा हूँ मैं कोई बाज़ी
हौसलों की कमी से हारा हूँ
कर दे ऐ वक्त कुछ मेहरबानी
मैं तेरी बेरूख़ी से हारा हूँ
मैं ‘अकेला’ ही सब पे भारी था
वो तो बदक़िस्मती से हारा हूँ