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इस तरह / खीर / नहा कर नही लौटा है बुद्ध

Kavita Kosh से
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निरन्तर साँय-साँय चल रही सड़क से थोड़ी दूर मेरे कंधों पर तुम्हारा चेहरा है।
तुम्हारी अधमुँदी आँखों में से गीलापन उतर रहा है। उँगलियों से खारा स्वाद
समेटता हूँ। तुम्हारे ढके बदन पर मेरा हाथ पंख-सा फिसलता है। थकी सही, तुम्हारी
आवाज़ मुझे छूने को आतुर है। शान्त आतुरता, जो अतृप्त रहकर वाष्प बन जाने
को तैयार है। मैं हाथ बढ़ाकर तुम्हें उड़ जाने से रोकता हूँ। सफ़ेद बालों के बीच से
थोड़ा-सा तुम दिखती हो। शरारती तुम मुझे नहीं देख पातीं, तुम्हारे चेहरे पर हलकी
हताशा है, जिसे अनुभव के बादल बार-बार ढकने की कोशिश में हैं।
तुम्हारी भौंहें उन दिनों जैसी हैं, जब कहीं कोई ब्यूटी पार्लर नहीं होता था। गाल
फूलते हुए रुक गए हैं सीमित गोलाई पर। काले रंग पर हलका-सा लाल निखरता है।

मैं झुकता हूँ तुम्हारी नाभि पर होंठ रखता हूँ।

क्षण भर में प्रेम, समर; दुःख, उल्लास। अनन्त देश काल में कणों क्षणों की
कितनी व्यथाएँ।

शब्द हरा पत्ता।
ईश्वर एक जैववैज्ञानिक ख़याल। पत्तियों टहनियों की इमारत कविता।
पत्ते में क्लोरोफिल।
क्लोरोफिल में मैग्नीशियम। मैग्नीशियम में भरा ख़ाली आस्माँ।
हर परमाणु में खुले आस्माँ में प्रेम। नफ़रत भी।

मैं हूँ प्रेम। झुकता हूँ तुम्हारी नाभि पर होंठ रखता हूँ।

सड़क से आता शोर तुम्हारे साथ होने से संगीत सा सुनाई पड़ता है। धीरे धीरे मुँद
आती हैं मेरी आँखें। इस तरह धरती से जुदा होते हैं हम। कुमार गन्धर्व गा रहा
है-सुनता है गुरु ज्ञानी।