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इस तुलसी का राम / भारत यायावर

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घूम रहे थे

साथ त्रिलोचन

कल सड़कों पर


दिल्ली की आँखों में मानो

धूल पड़ी थी

उसने देखा नहीं

और फिर झापड़ मारा


मैंने सोचा

कैसे कहते लोग नगर यह

दिल वालों का


इसने देखा कहाँ

अग बस जलती रहती

इसने सोचा होता

फिर हम

साथ नहीं रह पाते

और त्रिलोचन पीछे

होती लोगों की भीड़


भीड़ से बाहर आकर

सप्रपर्णी के पत्ते तोड़े

पान चबाए


त्रिलोचन यह नाम

उपेक्षा भर का होगा

दिल वालों को

पर नामवर सिंह

केदार के साथ खड़े थे

त्रिलोचन के महत्त्व को वे समझ रहे थे

गले मिले ज्यों


कृष्ण-सुदामा की बाहें हों

गुज़र रही थी भीड़

बसों में बैठी-बैठी

गुज़र गई थी भीड़

त्रिलोचन बिन पहचाने


धूल उड़ी थी फिर सड़कों पर

पर महत्त्व क्या कमा कभी है

इस तुलसी का

इस तुलसी का भी राम बसा है

जन-मानस में