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इस दर्जा इश्क़ मौजिब-ए-रुस्वाई बन गया / साग़र सिद्दीकी

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इस दर्जा इश्क़ मौजिब-ए-रुस्वाई बन गया
मैं आप-अपने घर का तमाशाई बन गया

दैर ओ हरम की राह से दिल बच गया मगर
तेरी गली के मोड़ पे सौदाई बन गया

बज़्म-ए-वफ़ा में आप से इक पल का सामना
याद आ गया तो अहद-ए-शनासाई बन गया

बे-साख़्ता बिखर गई जल्वों की काएनात
आईना टूट कर तिरी अंगड़ाई बन गया

देखी जो रक़्स करती हुई मौज-ए-ज़िंदगी
मेरा ख़याल वक़्त की शहनाई बन गया