भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इस दश्त-ए-सुख़न में कोई क्या फूल खिलाए / हिमायत अली 'शाएर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस दश्त-ए-सुख़न में कोई क्या फूल खिलाए
चमकी जो ज़रा धूप तो जलने लगे साए

सूरज के उजाले में चराग़ाँ नहीं मुमकिन
सूरज को बुझा दो कि ज़मीं जश्न मनाए

महताब का परतव भी सितारों पे गिराँ है
बैठे हैं शब-ए-तार से उम्मीद लगाए

हर मौज-ए-हवा शम्अ के दर पै है अज़ल से
दिल से कहा लौ अपनी ज़रा और बढ़ाए

किस कूचा-ए-तिफ़लाँ में चले आए हो ‘शाइर’
आवाज़ा कसे है तो कोई संग उठाए