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इस दिल से बढ़कर कोई वीरान कहाँ / सूरज राय 'सूरज'

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इस दिल से बढ़कर कोई वीरान कहाँ।
इसके आगे सन्नाटे शमशान कहाँ॥

जिनकी चादर आसमान धरती बिस्तर
उनसे पूछो रहता है भगवान कहाँ॥

गुस्से में दीवार गिरा दी गूंगे ने
हैरत में है आख़िर इसके कान कहाँ॥

उनकी ख़ातिर जाड़े भर जलते रहना
झोपड़ियों का महलों पर एहसान कहाँ॥

शाहे-जहाँ से पूछ रही उसकी तुर्बत
पी ए, नौकर कुत्ते और दरबान कहाँ॥

दुनिया ने उसपे अपने उन्वान लिखे
कोरे काग़ज़ का लेकिन उन्वान कहाँ॥

बेहद आसां होता है मुश्किल होना
आसां होना होता है आसान कहाँ॥

माँस ख़ून हड्डी है सबमें इक जैसा
फिर ये गीता बाइबिल और क़ुरान कहाँ॥

नींद सुकूँ परिवार, तुझे मज़दूर कहूँ
तेरे जैसा भी होगा धनवान कहाँ॥

 "सूरज" होना एक तपस्या होती है
ख़ाक़ हुए बिन मिलते हैं वरदान कहाँ॥