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इस देश में / बृजेश नीरज
Kavita Kosh से
इस देश में
चीख़
संगीत की धुन बन जाती है
जिस पर थिरकते हैं रईसज़ादे
पबों में
सुन्दर से ड्राइंगरूम में सजती है
द्रौपदी के चीरहरण की
तस्वीर
रोटी से खेलती सत्ता के लिए
भूख चिन्ता का विषय नहीं बनती
मौत की चिता पर सजा दी जाती है
मुआवजे की लकड़ी
किसान की आत्महत्या
आँकड़ों में आपदा की शिकार हो जाती है
धर्म आस्था का विषय नहीं
वोटों की राजनीति में
महन्तों और मुल्लाओं की कठपुतली है
झण्डों के रंग
एक छलावा है
बहाना भर है चेहरे को छुपाने का
तेज़ धूप में पिघलते
भट्टी की आग में जलते
आदमी की शिराओं का रक्त
पानी बनकर
उसके बदन पर चुहचुहाता है
गन्ध फैलाता है हर तरफ
इस लोकतन्त्र में
आदमी की हैसियत रोटी से कम
और भूख उम्र से ज़्यादा है