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इस दौर में कहीं वह निगाहें नहीं रहीं / कैलाश झा 'किंकर'

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इस दौर में कहीं वह निगाहें नहीं रहीं
गुज़रे हुए ज़माने की बातें नहीं रहीं।

हर ओर है तमाशा मगर देखता है कौन
खुद से निकल के देखे वह आँखें नहीं रहीं।

राहें सभी वही हैं सभी मंज़िलें वही
चाहत लिए गुलों की अदायें नहीं रहीं।

दौलत की चाह ने तो कहीं का नहीं रखा
माँ-बाप के लिए भी दुआएँ नहीं रहीं।

"किंकर" सवाल करना ज़रूरी कभी-कभी
क्यों प्रेम में पगी वह हवाएँ नहीं रहीं।