भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इस नाज़ इस अँदाज से तुम हाए चलो हो / कलीम आजिज़
Kavita Kosh से
इस नाज़ इस अन्दाज से तुम हाए चलो हो ।
रोज़ एक ग़ज़ल हम से कहलवाए चलो हो ।।
रखना है कहीं पाँव तो रक्खो हो कहीं पाँव,
चलना ज़रा आया है तो इतराए चलो हो ।
दीवाना-ए-गुल क़ैदी-ए-ज़ंजीर हैं और तुम
क्या ठाट से गुलशन की हवा खाए चलो हो ।
जुल्फों की तो फितरत ही है लेकिन मेरे प्यारे
जुल्फों से ज़ियादा तुम्हों बल खाए चलो हो ।
मय में कोई ख़ामी है न सागर में कोई खोट
पीना नहीं आए है तो छलकाए चलो हो ।
हम कुछ नहीं कहते हैं कोई कुछ नहीं कहता
तुम क्या हो तुम्हीं सब से कहलवाए चलो हो ।
वो शोख़ सितम-गर तो सितम ढाए चले है
तुम हो के ‘कलीम’ अपनी गज़ल गाए चलो हो ।