इस पठार पर / चन्द्रकान्त देवताले
मैं ज़िंदा हूँ इस सुरक्षित पठार पर
जहाँ हिमालय की बर्फ़ का पिघलना
चट्टानों का धंसकना या ज़मीन का कटना
कुछ भी नहीं सुनाई देता,
ज़रूर कुछ मटमैली नदियाँ बरसात में
कुछ घंटों के लिए स्थानीय किस्म का शोर करती हैं
और उतनी देर के लिए कभी-कभी
यातायात जाम होकर पानी उतरने का इन्तज़ार करता है
अफ़ीम के खेतों के इलाके में बांछेड औरतें
अपने बोदे पतियों की मौजूदगी में
देह का धन्धा करती हैं
और बीड़ी के लिए माचिस माँगने के बहाने
मर्द धुंधलके में डूबी सड़कों पर
अपनी औरतों के लिए पानी के भाव
ग्राहक ढूँढते हैं,
मैं समुद्र से बहुत दूर
आदमियों के उस भूखण्ड पर ज़िन्दा हूँ
जहाँ लोगों ने समुद्र का चिंघाड़ना कभी नहीं जाना
समुद्र के फेन में दाँत की तरह टूटते हुए घर
बहते हुए ढोर-डंगर और स्त्री-पुरुषों की देहों का
हाहाकार किसी ने नहीं देखा
मेरी आधी उमर बीत चुकी है
इस मुक्त और खूबसूरत ठंडी रातों वाले पठार पर
मैंने भूकंप के धक्के से घड़ी के गिरने
या खिड़की के शीशे तक के चटकने की
आवाज़ नहीं सुनी
दौड़ते हुए घोड़ों या लड़ाकू विमानों के हड़कम्प में
यहाँ की धरती और आकाश को कभी भी
सिहरते हुए महसूस नहीं किया,
फिर भी लोगों के पैरों में असंख्य दरारें हैं
जिनके चिथड़ा जूतों से कीचड़ हर बार
कुछ चमडी नोंच लेता है
स्त्रियों के होंठों पर प्रसन्न पंक्तियों के
संगीतमय आकाश के बदले
फ़सल काटते वक़्त भी अजीब फुसफुसाहटें होती हैं
और चमकने के बदले उनकी आँखों में
किसी भी अन्न के दाने के भीतर छिपे
अँधेरे के भय की परछाईं दिखाई देती है
लस्तपस्त मुर्दनी के साथ
जिस तरह क़ैदी अफ़सरों के लिए
सब्जियाँ उगा रहे हैं
चपरासियों के हाथ बड़े बाबुओं की बीवियों के
पेटीकोटों के धब्बे छुड़ा रहे हैं
उसी तरह कोठरियों में
शिक्षकगण बालवृन्दों के समक्ष कुछ चारा जैसा डाल रहे हैं
शहरों और क़स्बों में
फ्लश का पानी
टेलीफोन की घंटियाँ
जनता का पेट्रोल
मजदूरों के जोड़ों का दर्द
किसानों की आँखों का खून
और पुश्तैनी मेहनत से कमाई हुई भाषा का सत्व
सार्वजनिक गटरों में
लगातार बजते हुए बह रहा है
फिर भी लोग इस पठार की छोटी नदियों में
किसी शाम जलते हुए दीये बहाते हैं
और फिर अँधेरी दिशाओं में डगमग आगे बढ़ते
रोशनी के पगचिह्नों को उमंग और
उम्मीदों से निहारते हैं
चकमक पत्थर की चमक जितनी देर की होती है यह खुशी
और फिर शुरू हो जाता है वही
लद्दू जानवरों का कमरतोड़ सिलसिला..
पत्थरों को तोड़ते हुए आदमी
और कोयला बीनती हुई औरतें
और नंगे पैर ठिठुरते हुए बच्चे
मुझे इस पठार पर
अपने मौज़ूदा मुक़द्दर के ख़िलाफ़
हर रोज़ कुछ दे रहे हैं
मैं उसके भट्टी में पकाकर
उन्हें वापस करने में लगा हूँ
और देख रहा हूँ अब इस पठार पर
आहिस्ता-आहिस्ता बदलता जा रहा है
मुट्ठियों का अर्थ.