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इस बरस अब / कविता भट्ट
Kavita Kosh से
बाट तिहारी
मधुमास निहारे
मन-आँगन
दहकते अंगारे
तन-चंदन
सुलगाएँ फुहारें
होम अग्नि में
ज्यों घृत हो द्रवित
ये कौन कहे
कि तन की है ज्वाला,
यह बन्धन
मन से मन का रे !
अधरों पर
यों अधरों की प्याली
मैं रूक्ष धरा
तू बदली निराली
बरस जा ना !
इस बरस अब,
मैं जनमों की
पिया रही हूँ प्यासी
युगों- युगों से
बैठी नैन सँजोए
सभी स्वप्न गुलाबी !
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