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इस बारिश में / सिद्धेश्वर सिंह
Kavita Kosh से
गई बिजली, बरसात भी बस आने को है ।
बरसता पानी अब मल्हार छेड़ जाने को है ।
छत पर टपकेंगी बूँदे ,रात भर रुक कर
कोई है जो आमादा कुछ सुनाने को है ।
याद आएगी अपने साथ कई याद लिए
इक घनेरी-सी घटा टूटकर छाने को है ।
नींद को नींद कहाँ आएगी आज रात
सिलसिला बेवजह जागने जगाने को है ।
मैंने जो कुछ भी कहा शायरी नहीं शायद
बात बस ख़ुद से बोलने-बतियाने को है ।
राज़ खुलते हैं बारिश में पर्त दर पर्त
नुमायाँ होता है वह भी जो छिपाने को है ।