भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इस बार तुम्हीं मेरी पतवार सम्हालो! / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
इस बार तुम्हीं मेरी पतवार सम्हालो!
पर्वत पर की यह झील झकोरे खाकर
झरना बन जाने को आकुल-व्याकुल हैं;
कुछ ठीक नहीं, कब टूट जायँ तटबन्धन,
इन कूलाकुल लहरों में वेग विपुल है;
पतवार तुम्हीं मेरी इस बार सम्हालो।
खारे पानी में ऐसी बात नहीं थी,
तूफान वहाँ भी बहुत बार उठते थे;
लेकिन यह झील! यहाँ फिर ऐसी आँधी!
इस भाँति वहाँ ये प्राण नहीं घुटते थे;
विषकण्ठ! तुम्हीं विष का यह ज्वार सम्हालो।