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इस भयानक समय में (कविता) / कुमार कृष्ण

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भयानक समय में कवि नहीं लिखता कविता
वह बनाता है घोंसले
बचाई जा सके जहाँ मनुष्यता
सुरक्षित रह सकें सपने
छोटी-छोटी खुशियों के बीज
हिम्मत-हौसला और उम्मीद की गुदड़ी

वह छानता है लगातार शब्दों से झूठ
बनाता है मीठा मालपुआ
गाँव-दर-गाँव माँग कर लाता है जौ के सत्तू
बैठ जाता है चुपचाप उसे ले कर
भूख और भीख की भीड़ में

वह जानता है-
भयानक समय में हमलावर
हथियार से नहीं
प्यार से, शिष्टाचार से
रंग-बिरंगे बाज़ार से मारता है
कवि लिखता है शिष्टाचार की नयी परिभाषाएँ

भयानक समय में कवि ढूँढ़ता है-
पुराने काग़ज़ों में ज़िन्दा रहने का नुसखा
ढूँढ़ता है मनुष्यता को बचाने की दवा
ढूँढंता है संवेदना के सन्दूक को छुपाने की जगह
लफ़्ज़ों की दीवार में

भयानक समय में कवि-
विवेक और विज़न की वीणा पर
साधता है नयी सदी के बीज मन्त्र

जब तमाम लोग
जा रहे होते हैं बाबाओं की गुफाओं में
सजाता है वह-
भगतसिंह के दस्तावेज़
शब्दों की बैलगाड़ी में

जीता है वह-
इस उम्मीद के साथ-
इंटरनैट के जंगल में
नहीं भूले अभी भी कुछ लोग
पुस्तकें उपहार में देना
नहीं भूले-
सूखे बाँस पर बजाना
कोई पुराना लोकगीत।