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इस रमज़ान में तुम्हें देखना / दयानन्द पाण्डेय

इस रमज़ान में तुम्हें देखना
ठीक वैसे ही जैसे पूरी चांदनी में
तनहा चांद को देखना
जैसे भरे बाज़ार में
ख़ुद को अकेला देखना

तुम्हारे रूप के बाग़ में
जैसे चांद छुप जाए
और चांदनी छुप-छुप कर उतरे
दिप-दिप कर उतरे
तुम्हारे आंचल से छन-छन कर उतरे
पेड़ों की डालियों के बीच मचल-मचल कर उतरे
किसी अमराई में
आम से लदे बाग़ की धरती पर उतरे
और उस की मिठास सी मचल जाए
जैसे मचलती है जीभ पर दशहरी की मिठास
और उस का भास
किसी मस्त मिठाई को मात देते हुए
इस तरह तुम्हें देखना
दशहरी की मिठास में भर कर
मैं तुम्हें देखता हूं इस रमज़ान में

तुम्हें देखते हुए उतरता हूं
अपने मन में ऐसे
जैसे किसी नदी की लहर में
सावन की बरखा उतरे
जैसे उतरे कोई रूपसी डगमगाती नाव से
जैसे उड़ते-उड़ते हर सांझ
उतरता हो कोई पक्षी
आसमान से
जैसे कोई थका हुआ परदेसी
किसी शहर से कमा कर
बरसों बाद उतरा हो नाव से
अपने ही गांव में बड़े चाव से
और उतरते ही भांस जाए उस का पांव
नदी किनारे उपज आए कीचड़ के किसी कोटर में
फिर धंस जाए आंख उस की उस लंगड़ाती चाल में
पांव से कीचड़ छुड़ाते चलते उस के हाव-भाव में
इस तरह तुम्हें देखना इस रमज़ान में
कितने सुख से भर देता है
जैसे भरी चांदनी में भर लेता है
कोई दूल्हा
अपनी नई नवेली दुल्हन को
भर अंकवार में

अभी फिर-फिर देखा है
तुम्हें इस भरे-पुरे रमज़ान में
बिलकुल इसी तरह

[2 जुलाई, 2015]