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इस लम्हा मेरे दिल न परेशान ज़रा हो / कांतिमोहन 'सोज़'
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इस लम्हा मेरे दिल न परेशान ज़रा हो I
कुछ याद न कर आज जफ़ा हो कि वफ़ा हो II
बेखटका चली आए बक़ा हो कि क़ज़ा हो,
मक़बूल है सौ बार सज़ा हो कि जज़ा हो I
हर मरहला हल हो चुका बस एक बचा है,
इस आख़िरी लम्हे में दिले-ज़ार का क्या हो I
ये आख़िरी ख़्वाहिश है तेरे यार के जी में,
होठों पे तबस्सुम हो कि दिल डूब रहा हो I
यूँ अपने तसव्वुर में न ये बात थी हरगिज़,
हम दुनिया से बेज़ार हों वो हमसे ख़फ़ा हो II
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- हार्ट अटैक के दौरान लिखी गई I 8-3-1990 की यह ग़ज़ल सोज़ की आख़िरी ग़ज़ल हो सकती थी I