इस सभा में
चुप रहो
हुआ बहरों का
आगमन ।
ये खड़े हैं
आईने के सामने
यह जानते हैं –
अपने ही
दाग़दार
चेहरे नहीं पहचानते हैं ।
तर्क का
उत्तर बचा
केवल कुतर्कों
का वमन ।
बीहड़ से चल
हर घर तक
आ चुके हैं
भेड़िए ।
हैं भूख से
व्याकुल बहुत
इनको तनिक न
छेड़िए ।
लपलपाती
जीभ खूनी
ज़हर भरे इनके वचन ।
हलाल इनके
हाथ से
जनता हुई है
आजकल ।
काटते रहेंगे हमेशा
लूट-डाके की फ़सल ।
याद रखना
उतार लेंगे
लाश का भी
ये कफ़न ।