इस ‘मैं’ का आवरण सहज में स्खलित हो जाय मेरा;
चैतन्य की शुभ्र ज्योति
भेदकर कुहेलिका
सत्य का अमृत रूप कर दे प्रकाशमान।
सर्व मानव मंे
एक चिर मानव की आनन्द किरण
मेरे चित्त में विकीरित हो।
संसार की क्षुब्धता स्तब्ध जहाँ
उसी ऊर्ध्वलोक मैं नित्य का जो शान्ति रूप
उसे देख जाऊं मैं, यही है कामना;
जीवन का जटिल जो कुछ भी है
व्यर्थ और निरर्थक,
मिथ्या का वाहन है समाज के कृत्रिम मूल्य में,
उस पर मर मिटते है कंगाल अशान्त जन,
उसे दूर हटाकर
इस जन्म का सत्य अर्थ जानकर जाऊं मैं
उसकी सीमा पार करने के पहले ही।
‘उदयन’
संध्या: 11 माघ, 1997