इहाँ का तो इहे जानूँ / कुमार वीरेन्द्र
माई मन्दिर जाती
पूजा करती, जिस दिन नहीं जाती
आँगन में जहाँ तुलसी चौरा, गिराती उहाँ जल सूर्य को, जैसा
कि आज भी, लेकिन आजी को कभी मन्दिर जाते न आँगन
में ही पूजा करते देखा, हाँ कभी-कभी देखता
जल गिराते भी तो, एक नहीं
दो-चार लोटा
दुआर आगे जो आम
का पेड़, उसकी जड़ों के चारों ओर, लेकिन इसके
लिए वह, माई की तरह बेर ढरकने तक भूखे-प्यासे नहीं रहती, भोरे उठते गोबर पाथती
और मुँह धो कुछ खा लेती, और ई कि पेड़ को जल देने का काम, सुबह ही नहीं, दुपहर
या शाम को भी करती, ऐसा करते माई की तरह कुछ बुदबुदाती भी नहीं
वह तो माई की तरह परसाद भी नहीं देती, माँगो, ज़िद करो तो
कहती, 'चुप रहs, दुकान चलूँगी तो लाई किनवा
दूँगी', फिर क्या, ख़ुश हो जाता
एक दिन पूछा
'आजी, तू मन्दिर काहे नाहीं जाती, माई
तो जाती है, इहाँ एगो पेड़वे है, उहाँ तो बहुते भगवान हैं', आजी ने
सर पर हाथ फेरते, यही कहा, 'बेटा, उहाँ का तो पता नाहीं, अउर
इहाँ का तो इहे जानूँ, ई जो पेड़वा है न, आज जल दूँगी
मेरे बाद भी छाया, मेरे बाद भी फल देगा
सूख गया तो, चूल्हे का
दुःख भी बूझेगा !