भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ईंट पत्थर का है घर को घर क्या कहें / चंद्रभानु भारद्वाज
Kavita Kosh से
ईंट पत्थर का है घर को घर क्या कहें
इक अकेले सफ़र को सफ़र क्या कहें
कोई आहट नहीं कोई दस्तक नहीं
बिन प्रतीक्षा रहे दर को दर क्या कहें
जो तरसता रहा प्यार की बूँद को
एक प्यासे अधर को अधर क्या कहें
देख कर भी लगे जैसे देखा नहीं
उस उचटती नज़र को नज़र क्या कहें
जिसमें जीने का जज्बा बचा ही नहीं
ऐसे मुर्दा जिगर को जिगर क्या कहें
कुछ दिशा का पता है न मंजिल पता
इक भटकते बशर को बशर क्या कहें
छोड़ हमको किनारे पे खुद मिट गई
उस उफनती लहर को लहर क्या कहें
जिसकी गलियों में यादें दफ़न हो गईं
ऐसे बेदिल शहर को शहर क्या कहें
जो कटी है 'भरद्वाज' प्रिय के बिना
उस अभागिन उमर को उमर क्या कहें