ईंट वाली/ भरत प्रसाद
पेट भरने का सपना
मृग-मरीचिका की तरह नचाता है,
अधकचरी हड्डियाँ हार खा-खाकर
असमय ही मज़बूत हो चुकी हैं
आँखों में,
न बचपन जीने की ललक
न प्यार-दुलार की प्यास
न ही माई-बाप,
खो देने वाले आँसू --
बची है तो बस
भूख से लड़ने की सनक,
आबरू बचाते फिरने की चिन्ता,
अकेले जीने-मरने की बेबसी
और, मार खा-खाकर भी
अभी न मरने की ललक।
नरम पौधे की तरह शरीर
ईंट-भट्ठे पर कठपुतली की तरह नाचती है
पैर हैं कि फिरकी
थक-थककर, थकना जानते ही नहीं
हाथ हैं कि टहनियाँ
जिसने काम के आगे हारना ही नहीं सीखा ;
जन्मी तो बिटिया ही थी
ग़रीबी ने उसे बेटा बना दिया
औरत होकर जी पाना अब उसे कहाँ नसीब ?
मासूमियत का रंग अंग-अंग से गायब है,
मजबूरी की मार खा-खाकर
लड़कपन ने कब का दम तोड़ दिया,
प्रतिबन्धित है उसके लिए
युवती होने के सपने देखना
आकाश-पाताल के बीच
वह किस पर विश्वास करे ?
आज़ाद पंक्षी की तरह उड़ने की चाह
शरीर के किस-किस कोने से उठती होगी,
कौन जाने ?
लोगों की जुबान से उसका असली नाम गायब है,
मज़दूर बन गई है इस कदर कि
अब तो ज़िन्दा रहने की पहचान ही गायब है
मान-सम्मान, इज़्ज़त-आबरू छिन जाने के बावजूद
बची हैं तो दोनेां कलाईयों में
रंग-बिरंगी चूड़ियाँ,
जिसे माई ने अपने हाथों पहनाया है।