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ईमानदारी बोलती है / डी. एम. मिश्र

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ईमानदारी बोलती है
उसे अलग से
ज़बान की ज़रूरत नहीं होती

कवि‍ता अपना काम करती है
उसे अलग से
तीर-कमान की जरूरत नहीं होती

बैसाखियाँ हैं
क्योंकि पैर हैं
पंछी पंख विहीन होकर उड़ नहीं सकते
पर, जो गगन विहारी है
उसे अलग से
यान की जरूरत नहीं होती

दूसरों पर असुविधाएँ डाल देना
अपने हक़ में भी ज़िल्लत है
जब एक हवा
अधिक देर तक नहीं टिकती
क्षेाभ की ज़मीन में कभी भी
उग आते हैं बेशुमार कुकुरमुत्ते
तब दुविधा के सिवा
हाथ में कुछ नहीं आता
आदमी होने की खुशबू
जिसमें बाकी है
उसे अलग से
गुलदान की ज़रूरत नहीं होती

बच्चों की कोई वास्तविक
उम्र नहीं होती
होशोहवास दुरूस्त होने तक
कोई भी औज़ार से खेलते समय
वह काट लेते हैं ख़ुद की उँगलियाँ
जिद्दी बच्चे मानते नहीं
बाद में पछताते हैं
चिन्ता की चिता पर जो बैठा है
उसे अलग से
मसान की ज़रूरत नहीं होती

इस कविता के सामने वह नहीं
जिसे आप सोचते हैं
मुड़कर देखिये
भेड़ियों की लम्बी क़तार
कुटिल मुस्कान के साथ
लोगों को खिन्न देखने की
अबोध चतुराई में पीछे पड़ी है
यह भूलकर कि विषवेल
नीचे से ऊपर तक जाती है
और फैल जाती है
जबकि अमरता संकल्प में होती है
उसे अलग से
वरदान की ज़रूरत नहीं होती