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ईश्वर से मुक्ति / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

तुम डरती हो
पर मरती भी हो
तुम चाहती हो
मुझे भाती हो
पर समा नहीं पातीं
थोड़ी दूर ही रुककर
लौट जाती हो
क्यों इतनी नजदीकियाँ
कि हाथ भर की दूरी भी
मीलों लगे
क्यों इतनी दूरियाँ
कि हरदम आसपास लगो
झिझको मत
आओ प्यार करें
इस सुलगते हुए मौसम को
और सुलगायें
बढ़ने दो पारा
बहने दो धारा
जहाँ कहीं भी
जैसे भी वक्त में
किसी भी मूड में
आओ प्यार करें
कब तक
यूँ ही पास आ-आकर
लौट जाते रहेंगे?
कब तक
निगाहों ही निगाहों में
मुस्कराते रहेंगे?
कब तक रातें में उठ-उठकर
आँसू बहाते रहेंगे?
कब तक
कुछ करते-करते
एक-दूसरे को याद आते रहेंगे?
कब तक कच्चे धागे से बँधे
कसमसाते रहेंगे?
हमारे हाथों मंे ही है
इन बंधनों को तोड़ना
सांसारिक बातों को छोड़ना
आओ प्यार करंे
यूँ घुट-घुटके ना मरें
नैतिकता से ना दबें
उड़ें खुले आसमान में
उन्मुक्त आज़ाद
खिलखिलायें
चारों दिशाओं को गुँजायें
हिला दें
ईश्वर का सिंहासन भी।