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ईश्वर से संवाद / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

क्या रखकर कहीं
भूल गये हो?
सिर कहीं, धड़ कहीं
हाथ-पाँव अलग-अलग
धागों से बँधा हुआ अंग संग
कहाँ उलझ गए
छूटना तो माँगा था
पर टूटना नहीं
ये कहाँ पता था
कि टूटना ही
छूटने की शुरुआत है
अभी तो और बारीक होगा
खूब पीसा जाएगा
जब तक कण, कण ही ना रहे
कभी-कभी लगता है
नई कठपुतलियों मंे उलझे हो
दे दिया उन्हीं को तुमने अपना मन
तभी तो पुरानों को
भंडार-घर में फेंका है
इस ब्रह्मांड में
कितना कुछ इकट्ठा करोगे
क्या-क्या बनाओगे, सजाओगे?
हर रोज अब फैशन बदल जाता है
कब तक वही चाँद-तारे सजाते रहोगे
कब तक अंडज, जेरज, स्थावर, जंगम में
भटकाते रहोगे
अब कुछ खेल नया हो जाए
तो हमको भी मजा आए
हर बार
वही जीना-मरना-जीना
हर बार वही धरती
हर बार वही जहर पीना
कोई और भी ओर-छोर दिखलाओ
जहाँ से दिखे ये सारा तमाशा
समझ पाएँ इस ब्रह्माण्ड की भाषा
खोल पाएँ शब्द का भेद
निकल जाएँ दसवाँ द्वार छेद।