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ईहातीत क्षण (कविता) / ईहातीत क्षण / मृदुल कीर्ति
Kavita Kosh से
अपने मन चीते पूर्णत्व को ,
देह में साकार ,
उनकी दृष्टि में आलिंगित और कृतार्थ
ऐसी सत्ता के सामने होते ,
अपनी सत्ता को कहाँ रखूँ ?
मनसा और दृष्टि गत भोग्या भाव,
करमा और स्थूलगत भोग्या भाव से कहीं निकट है.
मनसा और करमा भोग की ईहा का,
आदि और अंत है ,
पर मैनें ईहातीत क्षणों का प्रवाह जाना है.
जो आद्यंत हीन है.
तुरीयातीत देवत्व तुरीय्मान हुए.
तब ही ईहातीत तुरीया वाकमान हुई.
हम परस्पर पारदर्शी हुए.
सदेह पाना समग्र नहीं एकांश है.
विदेह पाना एकाग्र और सर्वांश है.
कहीं आज मैं पूर्ण ,
अखंड पूर्णत्व तो नहीं ?
क्यों कि तुम ईहातीत क्षणों की,
प्रणम्य स्मृति के साकार " ईश " हो.
पूर्णत्व ने स्वयम मेरे घर आँगन को पावन किया है.
यह शुभ मुहूर्त मेरे लिए दुर्लभ और अनिवार्य था