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ई अदरा कें मेघ ने मानत / नरेश कुमार विकल
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आइ चतुर्थीक राति मे कनियाँ
कानि रहलि छै कोहबर मे।
भरल सीमन्त सिनुर सुहागक
बनल अभागलि कोहबर मे।
फूटि गेलै आहिबाक पातिल
रूसि गेलाह पहु हमर किऐ ?
कोना जुड़ाएत दग्धल छाती ?
सोचि रहलि छी कोहबर मे।
हमरे आँखिक छाहरि तर मे
रभसय सौतिन कें संग मे
अप्पन सप्पत डाह ने होइयै
देखि कऽ अनका कोहबर मे।
सऽख-सेहन्ता सभ कें होइछै
हमरो केओ श्रृंगार देखय
आहार देखय, व्यवहार देखय
आ विचार देखय केओ कोहबर मे।
टिकुली नहि साटल बिजुरी थिक
चमकल सबहक आँगन मे
आब ने सीता चुप भऽ बैसतीह
ककरो बुत्त कोहबर मे।
टेभीक घघरा उठल गगन र
घेरि लेलक घनघोर घटा
ई अदरा कें मेघ ने मानत
रहत बरसिकऽ कोहबर मे।