ई त गजबे / कुमार वीरेन्द्र
भंडारकोन से, ऐसे हाहास बाँधे
दौड़त आवत दिखी बरखा, ऐसे
जो जहँवा उहँवे से
ली लम्मी; बधार में पेड़, बोरिंग छोड़ अउर
का लुकाने को, सो मैं भी धान के बीये की रखवारी में बैठा था बाँध प, झटके लम्मी ली, जो लगुआ
लागत उन्हें देत आवाज़, 'अरे भौजी लोग, जल्दी-जल्दी होऽऽऽ, नाहीं तो ऊ देखो ऊ'; अब भौजियाँ
कितनी जल्दी करें, जो गढ़ी थी घास, खुरपी से पीट, जड़ झाड़े बग़ैर जइसे-तइसे बोरे
में भर, कपारे ले भाग पड़ीं; दस डेग न दौड़ी होंगी, एक का पाँव बिछला
चटाक् करहा में गिर गई, उसको दूसरी उठाने लगी तब तक
चहुँप गया, दुनो के बोरे उठा दौड़ पड़ा कि देह
छुट्टा, अब आओ हाली-हाली; पर
इन भौजियों से जादा
तेज़ निकली
भंडारकोन वाली उनकी भौजी; और
देखो, एगो अलगे झाकाझूमर, देखो
कहँवा तो भौजी
को देख ननदें लुकाने जा रही थीं, कहँवा तो
बीचे राह मिल गईं, लगीं एक-दूसरे को भिगोते-भीगते कजरी गाने; जब पूछा, 'अरे का हो भौजी लोग ई
ननद-भौजाई भेंट गजबे...'; 'का करें, बबुआ जी, धरा गए तो का लुकाएँ जी; तोहे तो उठावन को खाली
बोरे दिखे, हमें भी उठा लेते...', कह ऐसे हँस पड़ीं भौजियाँ, रोआँ-रोआँ पँवर गई गुदगुदी
लगा धरती चहुँओर हरियर, लेकिन इनकी हँसी से जादे ना; अब भींज ही गईं
मेंड़ प लगीं गढ़ने घास; पोरे-पोर सराबोर उन्हें कजरी गाते देखता
सुनता रहा, और जाने कइसे, बोरिंग में मचान प बैठे
हुए भी, भौजियों की गवनई के लहार से
कि उनकी भंडारकोन वाली
रंगदार भौजी की
बौछार से, भीगता रहा
बस, बस भीगता रहा !