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ई पगडंडी / शंभुनाथ मिस्त्री

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कत्तेॅ छाप उखड़लोॅ नंगा पाँव के,
यै पगडंडी कथा कहै छै गाँव के ।

सुखलोॅ कंठ यहाँ तरसै छै पानी बिन,
तबलोॅ धरती सें चिनगारी फूटै छै,
यहाँ अन्हरिया रात पसरलोॅ आठ पहर,
बिलखी-बिलखी सभैं करम केॅ कूटै छै;
जहाँ वसन्ती हवां मन्द दुलराय छेलै,
नै रहलै हौ ठौर यहाँ वै छाँव के ।
यहाँ चुवै छै घाम देह सें पानी रं
पर अमरित के धार बहै छै शहरोेॅ में
गामोॅ के कुटिया अन्हार में डुबलोॅ छै,
सब चकमक लेकिन छै भरलोॅ शहरोॅ में
वहाँ रोज होली दिवाली महलोॅ में
राज यहाँ नित छै निट्ठाह अभाव के ।

के छै यहाँ आय मानुस के गिनती में ?
यहाँ डाह-इरखा छै सब मन में भरलोॅ
यहाँ जुआनी के ई रूप निखरलोॅ छै,
हड्डी के पिंजड़ा में जेना मन मरलोॅ
जहाँ कृष्ण राधा सें रास रचाय छेलै,
आबेॅ नै रहलै गोकुल हौ नांव के ।