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ई मइल कपड़ा अबकी / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’
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ई मइल कपड़ा अबकी
उतारे के होई
उतारहीं के होई।
मलिन अलंकार हमरा
छोड़े के होई,
सभई के हमिता
हटावे के होई, हटावहीं के होई।
दिनभर का काम काज से
धूरा-मटी लग गइल ब।
गतर-गतर जहँ-तहँ
दागे-दग जग गइल ब।
गरमी से, तपिस से
अतना अगिया गइल बा
कि सहल कठिन, रहल कठिन
छहपट्टी समा गइल बा।
दिन ढलल, काम-कज सकरल,
उनका आवे के बेरा भइल
प्राण में पियास जागल
प्राण में आस जागल
जल्दी से नहा लीं हम
प्रेम के कपड़ा पहिने के होई
साँझ खानी फूल लोढ़ के
माला गाँथे के होई
अब कहाँ बा बेरा
जल्दी करे के होई
हमरा सुनसान घर में केहूँ आई
एकर आशा के करो?
तहार आनंद भरल भुवन
बाहरे खेला कर रहल बा।
तहरो बुझाला राहे भुला गइल बा
एही से आ-आ के फिर-फिर जतरऽ