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उकेरो हवा में अक्षर / जगदीश पंकज
Kavita Kosh से
अब ज़रा सँभलो
उकेरो हवा में अक्षर
फेंकता है
आसमाँ पत्थर
कुछ निरंकुश शब्द
जल कर, हो गए बाग़ी
है अराजक चेतना
आतंक से जागी
चढ़ गया पर्यावरण को
आबनूसी ज्वर
चल पड़ीं गलियाँ
विकल्पों की कमी लेकर
बढ़ गये तूफ़ान
मौसम को नमी देकर
अब सहेजो आग के टुकड़े
जलाओ जल उठें
संचेतना के स्वर