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उखड़ा-सा दिन / अज्ञेय
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उखड़ा-सा दिन, उखड़ा-सा नभ, उचटे-से हेमन्ती बादल-
क्या इसी शून्य में खोएगा अपना दुलार का अन्तिम पल?
ढलते दिन में तन्द्रा-सी से सहसा जग कर अलसाया-सा,
करतल पर तेरे कुन्तल धर मैं बैठा हूँ भरमाया-सा-
भटकी-सी मेरी अनामिका सीमन्त टोहती है तेरा...
है जहाँ किसी एकाकी ने संयोग लिखा तेरा-मेरा।
यह लघु क्षण अक्षर है, अव्यय, तद्गत हम, सुख-आलस्य-विकल;
ओ दिन अलसाये हेमन्ती, धीरे ढल, धीरे-धीरे ढल!
कलकत्ता, 12 जनवरी, 1939