उगलोॅ छै चान / रूप रूप प्रतिरूप / सुमन सूरो
महुआ पिछुआरी में उगलोॅ छै चान,
परती पर फुललोॅ छै फूल!
झिहिर-झिहिर पुरबैयाँ दै छै झकोर
सिहिर-सिहिर सिहरै छै पात;
लपका बँसबारी के बोलै छै पोर
गोकुल-गिरधारी के बात;
दूरोॅ सें आबै छै बिसरैलोॅ याद,
कसकै छै सँसरी केॅ शूल!
डहर साफ सुतलोॅ छै अजगर के नीन
चमगुदरी खेलै छै खेल;
पसरी केॅ मौलै छै गाछी के छाँह
झूलै छै भुलबा कनेल;
टिटहरिया टिहकै छै नदिया के तीर,
हियरा में हुबकै छै हूल।
गुजुर-गुजुर हेरै छै उलुवाँ शिकार
ठाम्हैं ढकमोरै छै नीम;
पोखरी पर फुदकै छै चकवा के जोड़
पानी में उमकै छै मीन;
लहर-लहर डोलै छै चकमक हिलोर
खटकै निरमोही के भूल!
झिमिर-झिमिर झिंझिर के अनटेटलोॅ ताल,
धरती के गूँजै छै गीत;
कसलोॅ छै कण-कण में रेशम के डोर
सरङोॅ सें उपटै छै प्रीत;
दूर-दूर बिछलोॅ छै दुधिया सुनसान
बिसरी केॅ लोक-लाज-कूल।