भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उगल बाड़े चनरमा नीक घर लागे / सूर्यदेव पाठक 'पराग'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उगल बाड़े चनरमा नीक घर लागे
उजाला से मगर चोरन के डर लागे

बहल अइसन हवा, उजड़त गइल सब गाँव
बसे खातिर सुहावन अब शहर लागे

खपत अतना बढ़ल पेट्रोल-डीजल के
हवा के साथ में फइलत जहर लागे

विषइला साँप के मुँह में जहर होला
मगर इन्सान विष से तर-ब-तर लागे

सभे दहशत में जिनगी जी रहल बाटे
इहाँ मउवत के साया हर पहर लागे