उगो सूर्य- से / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
141
कर का स्पर्श
पाकर दो पल में
पाथर बना मोती
आभा दोगुनी
भावाकुल तरंगें
गद्य -तट छू गई ।
142
फूल-से झरो
बिखेर दो सुगन्ध
बहो अनिल मन्द,
किरन तुम
उजियारा भर दो
पुलकित कर दो।
143
छू स्वर्ण-पाखी
मेरी कञ्चन काया
सरस कर देना
अमृत रस
प्राणों के गह्वर में
आज तू भर देना।
144
मुखरित हों
रोम -रोम गा उठे
प्रतिध्वनि गुंजित
छू ले अम्बर
घाटियाँ नहा उठें
मुकुलित हों प्राण।
145
चलना चाहा
जब इस जग से
कर जकड़ रोका
देखा मुड़के
स्वर्णाभा -सी मुस्काई
वह तुम ही तो थे!
146
मैं बलिहारी
ओ मेरे शब्दशिल्पी!
झंकृत हुआ उर
तेरा सितार
मधुरिम धुन से
करे कृति -सिंगार
147
उगो सूर्य- से
बहो बन निर्झर
उर हो आलोकित
सिंचित रोम
मन करे नर्तन
मेरे जीवनघन!
148
संतप्त मन
किए लाख जतन
न मिटी थी जलन
छली मुदित
छोड़े लज्जा- वसन
नग्न नृत्य- मगन।