उग रहा है दर-व-दीवार पे सब्ज़ा ग़ालिब / गुलरेज़ शहज़ाद
हम सब जैसे इंसानों के इक जंगल के
बाशिंदे हैं
जिस जंगल में
तन्हाई है
सन्नाटा है
वीराना है
और लोगों के इस जंगल में
शोर का जैसे कर्कश झांझर
बाज रहा है
अपने मन के सैय्यारे पर
दर्द के जादू की जंजीरें
अपने टूटे पांव से बांधे
नाच रहा हूं
ख़्वाबों के घर का दरवाज़ा
बोसीदा है
ख़्वाबों के घर की सब रंगत
उड़ी हुई है
आंख फाड़ कर देख रहे हैं
मेरी आंखों की हैरानी
मेरे घर के सभी दरीचे
लॉन में जो इच्छाएं रोपी थीं
सूख गई हैं
क्यारी में जो फूल खिले थे
झुलस गए हैं
कभी था सब्ज़ा-ज़ार वहां अब
सूखी हुई चटियल मिट्टी की ज़मींदारी है
इधर ख़्वाबों के घर की रंगत गायब होकर
दीवार-व-दर पर सब्ज़ा क्यों उग आया है
लगता है जैसे इस घर पर
मेरी महरूमी का इक काला साया है
दीवारों और दरवाजों ने
झुलसी हुई रुत के तीखे नग़मे गाये है
चाचा " ग़ालिब " याद आए हैं.