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उचटी अनमनी प्राणधन! जब मैं विकल कर रही थी रोदन। / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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उचटी अनमनी प्राणधन! जब मैं विकल कर रही थी रोदन।
तुम अंकबद्ध कर मुझे बहुत कर रहे प्रबोधित थे मोहन!
कहते थे ”कालचक्र-गति-क्रम मे अगणित दिवस निशीथ ढले।
पर थका न भ्रमर सरोज-वृन्त को ललक चूमता लगा गले।
अन्तःपुर में रोती न प्रिया क्या अब प्रियतम-परिचय-भूखी।
किस परिवर्तन-निदाघ में प्रेयसि, सजल स्नेह-सरिता-सूखी”।
हे परितोषक! हो कहाँ विकल बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥56॥