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उच्चैश्रेवा / लावण्या शाह

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समुद्र मंथन से निकले थे तुम
पँख फड़फडा़,उड़ चले स्वर्ग की ओर...
हे,श्वेत अश्व,नुकीले नैन नक्श लिये,
विध्युत तरँगो पर विराजित चिर किशोर!
मखमली श्वेत व्याल, सिहर कर उडे...
श्वेत चँवर सी पूँछ, हवा मेँ फहराते ...
लाँघ कर प्राची दिश का ओर छोर !
उच्चैश्रवा: तुम उड़ चले स्वर्ग की ओर !
इन्द्र सारथि मातलि,चकित हो,
देख रहे अपलक,नभ की ओर,
स्वर्ग-गंगा, मंदाकिनी, में कूद पडे़,
बिखराते,स्वर्ण-जल की हिलोर!
उच्चैश्रवा: तेज-पुंज, उड़ चले स्वर्ग की ओर!
दसों दिशा हुईँ उद्भभासित रश्मि से,
नँदनवन, झिलमिलाया उगा स्वर्ण भोर !
प्राची दिश मेँ, तुरँग का ,रह गया शोर!

अब भी दीख जाते हो तुम, नभ पर,
तारक समूह मेँ स्थिर खडे,अटल,
साधक हो वरदानदायी विजयी हो
आकाश गंगा के तारों से लिपे पुते,
रत्न जटीत,उद्दात, विचरते चहुँ ओर!
उच्चैश्रवा: तुम उड चले स्वर्ग की ओर!