उछल कर आसमाँ तक जब गिरा बाज़ार चुटकी में / पवनेन्द्र पवन
उछल कर आसमाँ तक जब गिरा बाज़ार चुटकी में
सड़क पर आ गए कितने ही साहूकार चुटकी में
जो कहते थे नहीं होता कभी है प्यार चुटकी में
चुरा कर ले गये दिल करके आँखें चार चुटकी में
यहाँ पर ईद हो दीपावली हो या कि हो क्रिस्मस
झुलस जाते हैं दंगे में सभी त्योहार चुटकी में
कभी है डूब जाती नाव भी मँझधार चुटकी में
घड़ा कच्चा लगा जाता कभी है पार चुटकी में
पहाड़ी मौसमों-सा रँग बदलता है तेरा मन भी
कभी इक़रार चुटकी में कभी इन्कार चुटकी में
नहीं कोई करिश्मा कर दिखाती है यहाँ बुल्लेट
बदल जाती है बैलेट से मगर सरकार चुटकी में
रहा बरसों पड़ा बीमार बिन तीमारदारी के
मरा तो बन के वारिस पहुम्चे रिश्तेदार चुटकी में
यहाँ दो जून रोटी भी जुटाना खीर टेढ़ी है
मगर उपलब्ध हैं बन्दूक बम तलवार चुटकी में
बहुत अर्सा है गहराती मनों में उग रही खाई
खड़ी होती नहीं आँगन में है दीवार चुटकी में
असल सूरत को इनकी जब दिखाने की हुई कोशिश
जला डाले गये सब शहर के अख़बार चुटकी में
बना वो ही सिकन्दर वो ही जीता है लड़ाई में
झपट कर जिसने कर डाला है पहला वार चुटकी में
उमर पड़ जाती है छोटी मुकम्मल इनको करने में
नहीं बनते ग़ज़ल के हैं ‘पवन’ अशआर चुटकी में.