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उजड़ा शहर हमारा ऐसे / विजय किशोर मानव
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उजड़ा शहर हमारा ऐसे
बहे गांव-घर सारा जैसे
फिर जीता कोई चुनाव, फिर
गांव दांव में हारा जैसे
कुहनी के बल चले आदमी
जल को मथे शिकारा जैसे
धुआं उठे, भीतर से सुलगे
आग कि हाल हमारा जैसे
होंठ सूखते, आंखें भरतीं
चलता यहा गुज़ारा जैसे