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उजड़े घोंसले / अहिल्या मिश्र

मैं बूढ़ा हूँ
मैं अशक्त हूँ।

इसलिए
तुम्हारे खूनी पंजे
मेरी तरफ़ बढ़ते
चले आ रहे हैं।

मैं अपने सिर को
बचाने में व्यस्त हुआ तो
तुम्हारे पंजों ने
मेरे जर्जर घोंसले को
उजाड़ना शुरू कर दिया।

माना
कि मेरा घोंसला
कूड़े कचरों से
भरा पड़ा था।

उसमें-
भूख मिटाने को
अनाज का एक भी दाना
नहीं रखा गया था।

किन्तु
मेरे घोंसले का
वह
कचरा-भी आज नहीं तो
कल
काम आएगा

जब बरसात के पानी से
सड़ गल कर
खाद बन जाएगा।

और अनाज उपजाएगा,
तुम्हारे लिए भी।
किन्तु तुम्हारा
वह
भयानक पंजा
शायद ही कभी
कोई निर्माण कर पाए

हाँ
एक काम
तो कर सकता है
गरीबों के कब्र पर
महल बनाएगा
और
सुहाने सपने सजाएगा।

किन्तु
मेरी बेबसी के आँसू
दु: ख, दर्द
जाड़े की ठिठुरन
बरसात की चुभन
और धूप का तपन
तो नहीं मिटाएगा।

दरिंदों!
महल पर महल बनाओ
झोपड़ी को तोड़कर-उजाड़कर
क्योंकि शक्ति और शासन के
इकलौते दोस्त हो तुम।
फिर हमारी हस्ती कहाँ
स्वीकारोगे?

निश्चय हीं हम
बिन पनपे पौधों की तरह
तुम्हारी गरिमा के मिट्टी के
नीचे दबकर रह जाएंगे।
लेकिन दबते-दबते भी
फुट कर निकल आएंगे
कुछ नए पौध तुम्हारी
विशाल धरती के नीचे से
और तुम्हारे अस्तित्व को
झकझोर देंगे।

सत्य का बोध कराएंगें
मजबूरी की
चादर उतार फेकेंगे
और... और... और...
अधिकार का एक नया नारा लगाएंगे।
योग्यता / समानता / एकता / शांति / सहिष्णुता
एवं भाई चारे का
करेंगे एक नया सूत्रपात।