उजड़े हुए लोगों से गुरेजाँ न हुआ कर / मोहसिन नक़वी
उजड़े हुए लोगों से गुरेज़ाँ न हुआ कर
हालात की क़ब्रों के ये कुतबे भी पढ़ा कर
हर वक़्त का हँसना तुझे बर्बाद न कर दे
तन्हाई के लम्हों में कभी रो भी लिया कर
ऐ दिल तुझे दुश्मन की भी पहचान कहाँ है
तू हल्क़ा-ए-याराँ में भी मोहतात रहा कर
क्या जानिये क्यूँ तेज़ हवा सोच में गुम है
ख़ाबीदा परिंदों को दरख्तों से उड़ाकर
उस शख्स के तुम से भी मरासिम हैं तो होंगे
वो झूठ न बोलेगा मेरे सामने आकर
पहला सा कहाँ अब मेरी रफ़्तार का आलम
ऐ गर्दिश-ए-दौराँ ज़रा थम-थम के चला कर
इक रूह की फ़रयाद ने चौंका दिया मुझ को
तू अब तो मुझे जिस्म के ज़िन्दां से रिहा कर
अब ठोकरें खाएगा कहाँ ऐ ग़म-ए-अहबाब
मैं ने तो कहा था कि मेरे दिल में रहा कर
इस शब के मुक़द्दर में सहर ही नहीं 'मोहसिन'
देखा है कई बार चराग़ों को बुझाकर