उजली सुबह के नाम पर / सोम ठाकुर

उजली सुबह के नाम पर
धोके हमें बेहद मिले
संकल्प कब पर्वत हुए
कब लोग आदमकद मिले

अपराध में डूबे हुए
खुद से बड़े ऊबे हुए
तन से तपे इस देश में
मर से मरे जनपद मिले

इतने बुझे वादे हुए
संघर्ष सब प्यादे हुए
इस मंत्र से जिंदा रहे -
'शायद मिले, शायद मिले!'

किसकी करे आलोचना
थोथा चना बाजे घना
थी पेट कि वह आग जो
'गब्बर' बने 'अमज़द' मिले

चितचोर है सोना हिरन
बौना हुआ जो सूर्य मन
दरबार रावण के लगे
लेकिन कहा अंगद मिले

जनतंत्र के ये रोग हैं -
मुख एक, छप्पन भोग हैं
लो लोग है धनवंत
जेबो में लिए संसद मिले

अपना अजब घरबार है
दीवार-दर- दीवार है
थी चाह आँगन की मगर
जाले पुरे गुंबद मिले

कीड़े हुए इतनी गुनी-
हर पोर आज़ादी घुनी
बदलाव का लेकर भरम
हम को नये नारद मिले

संयोग ये कैसा बदा
हक में निराला के सदा
थी गंजिया छनती हुई
चिथड़े हुए तहमद मिले

ए सोम! क्यों शोला बना
इस तार बड़बोला बना
खामोश रह, तुझको यहाँ

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