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उजाले की ओर / शरद चन्द्र गौड़
Kavita Kosh से
गुम हो जाते हैं उजाले
गहरी अँधेरी रातों में
एक दिया तो जलाओ
भटक जाते हैं मुसाफ़िर
अनजानी राहों में
एक हम-सफ़र तो बनाओ
जंग लगी नौकर-शाही का
भ्रष्टाचार देखकर
ऐ क़लम के सिपाही
क़लम तो उठाओ
बहाते हैं ख़ून, बेगुनाहों का
साम्यवाद-माओवाद के नाम पर
कोई कार्ल मार्क्स का एक रूक्का
इनको पढ़ कर तो सुनाओ
उजड़ी माँग, बिलखती माँ, यतीम बच्चे
कोई इन्हे इन्सानियत तो सिखाओ
कोई इन्हे इन्सानियत तो सिखाओ