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उजाले की खुशबू / सोम ठाकुर
Kavita Kosh से
झरे हुए वर्षो को
उगने वाले कल को
हमने दी खुले उजाले कि खुशबू
हर कोलाहल को
सुना किए सहमे खामोश प्रहर
गाथाएँ ठोस अंधेरे कि
यह कैसी हवा चली! और बढ़ी
सीमाएं खूनी घेरे की
गहराती गई मृत्युगंधा हर झील यहाँ
प्रश्न उठा -कौन सूर्य सोखेगा
ज़हर -घुले जल को?
अंतहीन कड़ुआया बहरापन
भीड़ों को चीरता गया
एक ध्वंस -धर्मा अँधा मौसम
अंकुर के पास आ गया
होंठों पर हरे शब्द रखकर हम
जिया किए केवल भीतर के मरुथल को
पलक उठाते दिन का नया उदय है
तट पर बेहोश हुई शाम यह नहीं
है यह आरंभ नई मंज़िल का
काँपता विराम यह नही
अब स्वयं ग़ुजरकर हम सुलगते वनों से
पार करेंगे पाँवों -लिपटे दलदल को