उजाले / बाल गंगाधर 'बागी'
अधिकारों को छीन हमारे, लूटा संसाधन सारा
रौशन घर तुम्हारे रहे, उजड़ा मकां हमारा
बांध गरीबी जात धरम कें, हर ज़ुल्मों के साये हैं
घर-घर में घनघोर बदरिया, बिजली ही बरसाये है
गांव शहर है देश बेगाना, अपने से उनके घर जाना
ऊपर से बहती पुरवाई, दीया बुझा अंधियारा
अधिकारों को छीन हमारे, लूटा संसाधन सारा
रौशन घर तुम्हारे रहे, उजड़ा मकां हमारा
जंगल छीन ज़मीनें छीनी, जीवन की धारा
खेत छीन खलिहान को छीना, छीना राज हमारा
पर्वत से सागर तक छीना, नदियों का मीठा पानी
जीवन के मझधार में कश्ती, पाई नहीं किनारा
अधिकारों को छीन हमारे, लूटा संसाधन सारा
रौशन घर तुम्हारे रहे, उजड़ा मकां हमारा
पाप धर्म पाखण्डों की तो, गढ़ी कहानी सौ-सौ बार
इंसानों की कदर न जाने, पत्थर को पूजे सौ बार
मानवता को बांट-बांट, खुद के सरताज बने कैसे
जाग रे शोषित उनकी सत्ता, अब न होगी दुबारा
अधिकारों को छीन हमारे, लूटा संसाधन सारा
रौशन घर तुम्हारे रहे, उजड़ा मकां हमारा