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उज्जयिनी से / प्रतिभा सक्सेना

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खींचता मुझको सदा उस पुण्य-भू मे,
कौन सा अज्ञात आकर्षण न जाने,
बीत कर भी टेरता है विगत मुझको
कौन सा मधुमास सोया है न जाने!



मुग्ध हो उठता स्वयं उर
कौन सा हिम-हास छाया है न जाने,
छलक उठता नीर नैनो मे अचानक
कौन सा विश्वास खोया है न जाने!



दूर, कितनी दूर, लेकिन कल्पना का स्वर्ग
आकर स्वप्न मे साकार सा है!
काल की अस्पष्टता का आवरण ले
कौन सा सौंदर्य अब भी झाँकता है!



आज युग से वर्ष मानो बीत कर भी
खींच लाते हैं पुरातन मुक्त बेला!
आज जीवन के सरल वरदान मे भी
चुभ रहा है एक ही कंटक अकेला!



कौन शैशव सा सहज निष्पाप आकर
जा चुका अनजान ही मे?
कौन बचपन का सरस उल्लास देकर
रम चुका है ध्यान ही में!



कौन सी वह शक्ति मोहक
आज भी ललचा रही है,
मौन सा संकेत देकर जान पडता
पास मुझे बुला रही है!



कौन से आराध्य की आराधना में
नत हुआ मस्तक स्वयं ही!
कौन वर की साधना में
अर्घ्य बन कर चढ चुके आँसू स्वयं ही!



कौन पावनता अछूती
आज भी तुममे बसी है,
स्नेहमय आमंत्रणों मे
कौन सी सुषमा छिपी है!



दे रहा अब भी निमंत्रण
शस्य-श्यामल मृदुल अंचल,
एक नूतन आश का संदेश देकर
स्मृति पट पर कर रही है नृत्य चंचल!



कौन सी मधुता भरी तेरी धरा में
 मौन हे मालव बता दे,
कौन सी गरिमा समाई है कणों में
रम्य क्षिप्रा तट बता दे!



उर स्वयं भरता अवंती भूमि तेरे
स्वर्ग से सौंदर्य की उस याद से ही,
एक अनबूझी अनूठी भावना से
एक अप्रकट, अकथ मधु-अनुराग से ही!



कौन से मीठे सुहाने गान,
कल-कल राग में आ बस गये हैं
कौन सी निरुपम छटा से,
अवनि अंबर सज गये हैं!



बाँध लेता मुग्ध मन को क्षितिज बंधन,
हृदय की स्वीकृति बिना ही!
बोल जाती है मधुर सी मन्द भाषा,
स्वयं आकर किन्तु बतलाये बिना ही!



एक क्षण अपलक बने दृग
देख लेते कल्पना में रूप तेरा,
एक पल विस्मय भरा आ
छोड़ जाता है अमित उल्लास तेरा!



कौन है जो खिंच न आये
एक ही तेरी झलक में,
ऊब जाये रम्य भू से,
कौन निर्मोही जगत में!



बढी आती कौन सा सन्देश लेकर
दूर से चल कर यहाँ क्षिप्रा पुनीता!
चिर पुरातन,चिर नवीना, धान्य पूरित
रम्य धरणी नेहशीला!



ज्योत्स्ना सी बिछी जाती है धरा पर
कौन से निर्मण की यह मुक्त बेला!
भर रहा है इस गहन रमणीयता में,
कौन सा जादू अबोला!



भोर की अरुणिम उषा सी
राग-रंजित दिग्दिगंता,
मुक्त अंबर वसन धारे
काल की नगरी अचिन्ता!



ध्यानमग्ना, शान्त, निश्छल,
मौन पावन तापसी सी
किस तपस्या में निरत हो,
देवता की आरती सी!



काल के अपरूप से होकर अपरिचित,
महाशिव के ही अमित वरदान सी तुम!
रम्य-मंगलमयि धरा के
सत्य की पहचान सी तुम!



चिर-मधुर कविता विधाता,
कर गया अंकित किसी अदृष्य लिपि में!
मूर्तिमय कर भाव लेकिन,
हृदय की अस्पष्ट छवि में!



एक आश्रम है किसी निर्धन गुरु का
और दो गुरु भाइयों की नेहशाला,
एक राजा भिखारी मित्र के प्रति
स्नेह -समता से भरा व्यवहार सारा!



और भी आगे, मनुज के
बुद्धि के उत्थान की साहित्यमाला,
काल-दंशन से सुरक्षित है अभी भी
किन्हीं प्रतिभाशालियों की ग्रन्थमाला!



हर डगर पर धान्य धर कर,
प्रति चरण पर वार पानी,
सघन वृक्षों का निमंत्रण दे बुलाती,
यह धरा की नाभि, नव-ऊर्जा प्रवाहिनि!



हे अमर सौंदर्य,
पिछले प्रात की अनुपम निशानी!
दिव्य उज्जयिनी, तुम्हीं
अमरत्व की मधुमय कहानी!



बीतती सदियाँ कभी,
सौंदर्य फीका कर न पायें!
बेधती युग-यंत्रणायें
मान तेरा पर न पायें!



आज युग की वंचना से दूर बैठी
कौन सा विश्वास अँतर मे छिपा है,
प्राण में स्वर्णिम अतीतों की झलक है
कल निनादों से हृदय अब भी भरा है!



महाकालेश्वर, स्वयं धर कर वरद-कर
सफल कर दें अर्चनायें!
झुक स्वयं जायें तुम्हारीपुण्य भू में,
आज की क्षोभों भरी दुर्भावनायें!



वीर विक्रम की नगरि में ज्योति किरणें
भर रहीं सुविकास युग का
ओ अवंती, आज क्षिप्रा की लहर में,
खोजने आईँ सजीला प्रात युग का!